दोस्तों, ग्रेविटि ब्रह्माण्ड की सबसे रहस्यमयी और मूलभूत नेचुरल फोर्स है जिसने समस्त ब्रह्माण्ड को वर्तमान आकार देत हुए डायनामिक बनाए रखा है। वैज्ञानिक केवल अन्तरिक्षीय पिण्डों की अक्षीय और कक्षीय गतियों की गणनाओं के आधार पर ग्रेविटि को परिकल्पित करते हैं, सटीक ग्रेविटेशनल ला बनाते हैं, राकेट या सेटेलाइट लांच करते हैं, किसी गिरती हुई वस्तु की गति और गिरने में लगने वाले समय का सटीक प्रिडिक्शन करते हैं। इन्हीं गणनाजन्य नियमों और परिकल्पनाओं के आधार पर वे अनेक प्रकार के नेचुरल फिनोमेना को सटीक तरीके से एक्सप्लेन करते हैं। उनका सटीक मापन करते हैं और सटीक प्रिडिक्शन करते हैं। वे ब्रह्माण्ड के छोटे बड़े सारे अन्तरिक्षीय पिण्डों के बनने और फिर परस्पर जुड़े रहने के पीछे ग्रेविटि को ही जिम्मेदार मानते हैं। परन्तु आधुनिक विज्ञान ने प्रयोगों से ग्रेविटि का बनने और उसकी कार्यप्रणाली को समझे बिना ही ग्रेविटि के सिद्धान्त बनाकर गणनाओं के आधार पर प्रमाणित मान लिया। फिर ग्रेविटि के नियमों के आधार पर तारों की लाइफ साइकिल प्रिडिक्ट कर दी।
न्युटन की ग्रेविटि का जन्म मॉस से होता है। जितना ज्यादा मास उतनी ज्यादा ग्रेविटि। न्युटन ने ग्रेविटि को दो पिण्डों के बीच एक दूसरे पर लगने वाली आकर्षण शक्ति मानकर इसकी व्याख्या की। दूसरी तरफ आईन्सटीन ने भी ग्रेविटि को एक एट्रक्टिव फोर्स माना है। परन्तु आईन्सटीन की ग्रेविटि का जन्म किसी मैसिव मास ओबजक्ट की उपस्थिति से स्पेस टाइम या स्पेस फैब्रिक्स में होने वाले कर्व या बैन्ड से होना माना जाता है। जितना ज्यादा कर्वेचर इन स्पेस टाइम, उतनी ज्यादा आइन्सटीन की ग्रेविटि होती है।
न्युटन और आईन्सटीन की ग्रेविटि अवधारणाओं से एक स्पेस ओबजक्ट के बनने की प्रकिया में ग्रेविटि के जन्म और उसकी भुमिका को नहीं समझा जा सका। एटमों के पुंज बने बिना ग्रेविटि केसे बनी या बिना ग्रेविटि के एटमों का पुंज कैसे बना ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजे बिना ग्रेविटि के जन्म और उसकी कार्यप्रणाली को नहीं समझा जा सकता।
इसलिए आइए अब हम इस पहेली को सुलझाने के लिए ग्रेविट के बारे में एक नई असामान्यविश्व परिकल्पना पर चर्चा करते हैं। नई ग्रेविटि परिकल्पना को प्रयोगों से साबित करने के लिए एक शौध और प्रयोग परियोजना विज्ञान समुदाय के समक्ष प्रस्तुत है।
इसके अनुसार ग्रेविटि का जन्म स्वतंत्र अन्तरिक्ष में न्युक्लियर फ्यूजन के द्वारा केवल एक हिलियम एटम बनने से हो जाता है। एक हिलियम एटम के चारों तरफ स्थित स्पेस कर्व होकर ग्रेविटि बबल बनता है। इससे ग्रेविटि बनती है और कार्य करती है। ग्रेविटि के जन्म के साथ ही एक हिलियम एटम के चारों तरफ एक अन्तरिक्षीय पिण्ड के निर्माण की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। आइए देखते हैं कि यह सब कैसे सम्भव है, इसका क्या प्रमाण है और इन प्रमाणों को प्रयोगों से कैसे जुटाया जा सकता है?
न्युक्लियर फ्यूजन के दौरान चार हाइड्रोजन न्युक्लिआई फ्यूज होकर एक हिलियम में बदल जाते हैं, इस प्रक्रिया में होने वाले मास डिफक्ट से 26.7 मेगा इलेक्ट्रोन वोल्ट एनर्जी मुक्त होती है। यहां तक की प्रक्रिया न्युक्लियर फिजिक्स से साबित है। इसके आगे असामान्य विश्व परिकल्पना के अनुसार स्वतंत्र अन्तरिक्ष में यह एनर्जी एक गोलाकार बबल के रूप में हिलियम एटम के चारों तरफ बढ़ती जाती हैं। एनर्जी बबल की सरफेस स्पेस को बाहर की तरफ धकेलती हुई कर्व करती जाती है। इससे इस हिलियम एटम के चारों तरफ का स्पेस इस एनर्जी बबल की सरफेस तक कर्व हो जाता है। अब इस गोले के बाहर चारों तरफ स्पेस मौजूद होता हैं, परन्तु इस एनर्जी बबल के अन्दर कोई अन्तरिक्ष मौजूद नहीं रहता है। इस ग्रेविटि बबल के केन्द्र पर केवल एक हिलियम एटम होता है।
ग्रेविटि बबल की सरफेस से गोले को अन्दर से भरने हेतु अन्तरिक्ष ही एक प्रकार की इनवर्ड स्पीरली एक्सिलरेटिंग एक्सपैडिंग वेव में बदल जाता है। यद्यपि वैज्ञानिकों ने ऐसी किसी भी वेव को न तो परिकल्पित किया गया है और न ही डिटक्ट किया गया है। फिर भी हम ग्रेविटि पैदा करने वाली वेव को परिकल्पित करके इन्हें प्रयोग से साबित करने हेतु एक प्रयोग योजना प्रस्तुत करते हैं। इन्हें हम ग्रेविटि वेव कह सकते हैं।
परिकल्पित ग्रेविटि वेव इस एक हिलियम एटम की तरफ इनवर्ड स्पीरली एक्सिलरेटिंगली एक्सपैन्ड होती हैै। इससे ग्रेविटि वेव की गति हिलियम एटम तक पहंुचते पहुंचते बहुत तेज हो जाती है। ये वेव सामुहिक रूप से इस एटम पर चारों तरफ से एक इनवर्ड स्पीरल पुश बनाकर इनवर्ड स्पीरल प्रेशर जनरेट करता है। यह इनवर्ड स्पीरल प्रेशर एक हिलियम एटम में अक्षीय घूर्णन पैदा करता है। अक्षीय घूर्णन से इस एटम में दो मैग्नेटिक पोल बन जाते हैं। मैग्नेटिक पोलों के साथ एक्सिलरेटिंग इनवर्ड स्पीरल प्रेशर ग्रेविटि है। इस तरह एक हिलियम एटम के बबने से बना एनर्जी बबल ही अन्त में ग्रेविटि बबल में बदल जाता है।
अब इस ग्रेविटि बबल में प्रवेश करने वाले प्रत्येक हाइड्रोजन न्युक्लिआई की दिशा बदल कर ग्रेविटि बबल के केन्द्र पर स्थित एक हिलियम एटम की तरफ हो जाएगी। ग्रेविटि के प्रभाव से अब ग्रेविटि बबल के अन्दर आने वाला प्रत्येक न्युक्लिआई अपनी दिशा बदल कर इस एक हिलियम एटम की तरफ बढ़ेगा और अन्त में इनवर्ड स्पीरल एक्सिलरेटिंग गति के साथ हिलियम से टकरा जाएगा। इस प्रक्रिया से चार हाइड्रोजन न्युक्लिआई फिर फ्यूज होकर नया हिलियम एटम बनाएगें और इससे फिर एनर्जी मुक्त होगी। मुक्त हुई न्युक्लियर फ्यूजन एनर्जी से ग्रेविटि बबल का आकार बढ़ता जाएगा। बढ़े हुए ग्रेविटि बबल की सरफेस पहले की तुलना में दोगुनी हो जाएगाी और इस कारण अब इसके अन्दर पहले से अधिक एटम आएंगे और वे इस ग्रेविटि बबल के केन्द्र पर स्थित हिलियम एटमों से टकराएंगे और वे फिर फ्यूज होकर एनर्जी मुक्त करके ग्रेविटि बबल को बढ़ाते जाएंगें। इससे अधिक एटम इसके अन्दर आएंगे और फ्यूजन बढ़ाते जाएंगे। इस प्रक्रिया से धीरे धीरे एक तारा बन जाएगा।
तारेे की आउटर शैल में होने वाले न्युक्लियर फ्यूजन से आउटवर्ड थर्मल प्रेशर जनरेट होता है। इससे उच्च एनर्जी युक्त न्युक्लिआई तारे से छिटक जाते हैं। तारे से दूर जाकर वे फ्यूज होते हैं और एक हिलियम एटम बनाते हैं। एक हिलियम के निर्माण केे साथ ही एक ग्रेविटि बबल बनता है। यह ग्रेविटि बबल तारे के ग्रेविटि बबल के अन्दर बनता है और बनते ही तारे के ग्रेविटि बबल के केन्द्र की परिक्रमा करने लगता है। इस ग्रेविटि बबल के केन्द्र पर एक ग्रह का निर्माण होता है। फिर ग्रह के ग्रेविटि बबल के अन्दर ही इसी प्रकार चार हाइड्राजन न्युक्लिआई फ्यूज होकर उपग्रह के लिए ग्रेविटि बबल बनाते हैं। उपग्रह ग्रेविटि बबल ग्रह के ग्रेविटि के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इस ग्रेविटि बबल के केन्द्र पर एक हिलियम एटम के चारों तरफ एक उपग्रह बनता है। इस तरीके से एक तारे के ग्रेविटि बबल के अन्दर ही एक तारा मण्डल बनता है जिसमें एक तारा, अनेक ग्रह और उपग्रह होते हैं।
एक तारा मण्डल बनने के बाद तारा अरबों सालों तक स्टेबल हो जाता है जिसे सिक्वंस फेज कहते है। इसके बाद तारा अन्त में सुपरनोवा विस्फोट से न्युट्रान स्टार या ब्लेक होल में बदल जाता है। सुपरनोव विस्फोट से मुक्त एनर्जी से इसका ग्रेविटि बबल बहुत बड़ा हो जाता हैं। इस तारे के चारों तरफ स्थित ग्रह बड़े होकर तारे में बदल जाते है और उपग्रह इसके ग्रह बन जाते हैं। फिर इन ग्रहों के चारों तरफ इसी प्रकार ग्रेविटि बबल बनकर उपग्रह बन जाते हैं। अन्त में प्रथम तारा ब्लेक होल में बदल जाता है और इसके चारों तरफ अनेक तारा मण्डल बनकर एक आकाशगंगा बन जाती है। फिर इसी आकाशगंगा बबल में में दूसरा तारा ब्लेक होल में बदलकर अपने चारों तरफ एक नई आकाशगंगा बनाता है। इस तरीके एक प्रथम तारे के ग्रेविटि बबल में अनेक आकाशगंगाएं बनती जाती है। इस प्रक्रिया से ब्रह्माण्ड एक ही ग्रेविटि बबल में रहते हुए फैलता जा रहा है क्योंकि एक शुरुआती ग्रेविटि बबल ही बढ़ता जाता है। इस एक ग्रेविटि बबल में असंख्य ग्रेविटि बबल बनते रहते है जिनके केन्द्र पर असंख्य आकाशगंगाएं होती है। एक आकाशगंगा के ग्रेविटि बबल में तारे, ग्रह, उपग्रह बनते और बड़े होते रहते हैं।
अब हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि ग्रेविटि और ग्रेविटि बबल कैसे कार्य करता है ?
ग्रेविटि बबल की सरफेस से जन्म लेकर ग्रेविटि वेव इनवर्ड स्पीरली एक्सिलरेटिंग स्पीड से आगे बढ़ती है। चूंकि गेविटि वेव इनवर्ड स्पीरली प्रोपेगेट होती है, इसलिए ग्रेविटि बबल के केन्द्र तक असंख्य चक्कर लगाकर पहुचती है। इससे केन्द्र तक यह बहुत अधिक दूरी तय कर लेती है और इसीसे इसकी गति केन्द्र के पास बहुत ज्यादा हो जाती है। इसलिए इसके केन्द्र पर इसका इनवर्ड स्पीरल पुश बहुत ज्यादा हो जाता है। यह ग्रेविटि बबल की सरफेस पर सबसे कम या नगन्य होता है। इस असामान्य विश्व ग्रेविटि का जन्म किसी पिण्ड के बनने के साथ होता है और यह ग्रेविटि लगातार बढ़ती जाती है। ऐसे अन्तरिक्षीय पिण्डों के केन्द्र में लगातार होने वाले न्युक्लियर फ्यजन से मुक्त होने वाली एनर्जी से इनके ग्रेविटि बबल लगातार बढ़ते रहते है, इसलिए इन पर अन्तरिक्ष से अधिक पदार्थ गिरता रहता है और इन पिण्डों का आकार भी लगातार बढ़ता जाता है। ऐसे अन्तरिक्षीय पिण्ड कभी नहीं समाप्त होते हैं और इनमें से प्रत्येक अन्त में ब्लेक होल में बदल कर एक आकाशगंगा बनाता है। इन्हें हम बढ़ते अन्तरिक्षीय पिण्ड कहेंगे। इनमें हमारी पृथ्वी जैसे ग्रह, उपग्रह और तारे शामिल हैं।
दोस्तों, हमारे ब्रह्माण्ड ऐसे भी अनेक छोटे पिण्ड हैं जिनमें कोई न्युक्लियर फ्यूजन नहीं होता है। ये छोटे पिण्ड किसी ग्रह, उपग्रह या तारे से छिटके गैसीय, पथरीले या धात्विक बर्फीले टुकड़े हैं। इनमें धूमकेतु, उल्का और एस्टेराइडस आदि शामिल हैं। इनके केन्द्र में न्युक्लियर फ्यूजन नहीं होता है। परन्तु इनमें भी ग्रेविटि होती है। इनकी ग्रेविटि का सोर्स इनके द्वारा मुक्त होने वाली रेडियोएक्टिव एनर्जी से बनने वाला स्टेबल ग्रेविटि बबल होता है। ऐसे पिण्डों से निकलने वाली रेडियोएक्टिव एनर्जी और अन्य प्रकार की रेडियशन एनर्जी मिलकर चारों तरफ स्थित स्पेस को आउटवर्डली कर्व करके स्टेबल ग्रेविटि बबल बनाती है जो मुक्त होने वाली एनर्जी में धीरे धीरे कमी होने से कमजोर होता रहता है इसलिए एैसे पिण्ड अन्त में अन्य किसी स्टेबल स्पेस ओबजक्ट के ग्रेविटि बबल में प्रवेश करता है। फिर उस ओबजक्ट पर गिर कर उसमें मर्ज हो जाते हैं। ऐसे पिण्डों की नगन्य ग्रेविटि को हम जीरो ग्रेविटि मान सकते हैं। यह नगन्य ग्रेविटि रेडियोएक्टिविटि में कमी होने से धीरे धीरे कम होती रहती है। इससे इसका ग्रेविटि बबल भी छोटा होता रहता है।
असामान्य विश्व परिकल्पित ग्रेविटि बबल परिकल्पना ग्रेविटि बबल की सरफेस से इनवर्ड स्पीरल एक्सिलरेटिंग वेवी प्रेशर जनरेट करके ग्रेविटि फिनोमेना सक्रिय करती है।
एक्सपैन्डिंग स्पेसः- हबल ने समझाया कि दो आकाशगंगाओं के समूह लगातार एक दूसरे से दूर हो रहे हैं। इससे इनके बीच का स्पेस एक्सिलरेटिंग स्पीड से बढ़ता जा रहा है। आकाशगंगाओं के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है।
ग्रेविटि बबल की अवधारणा को सत्यापित करने के लिए एक्सपैन्डिंग स्पेस बहुत बड़ा वैज्ञानिक तथ्य है। असामान्य विश्व परिकल्पना के अनुसार आकाशगंगाओं के ग्रेविटि बबल बढ़ने के कारण ये आकाशगंाएं एक दूसरे से दूर हो रही हैं। इसको उदाहरण से समझते है। यदि चार सटे हुए ग्रेविटि बबल बढ़ते जाते हैं तो इनके केन्द्र पर स्थित स्पेस ओबजक्ट एक दूसरे से दूर होते जाते है। इनके बीच की दूरी बढ़ती जाती है। इस कारण ये एक दूसरे से दूर भाग रहे हैं। इसी तथ्य को हब्बल ने टेलिस्कोप से देखा और इसकी व्याख्या तात्कालिक वैज्ञानिक समझ के अनुसार अपनी परिकल्पना विकसित करके कर दी। हब्बल को वैज्ञानिक समाज ने तत्काल स्वीकार कर लिया। परन्तु हब्बल के एक्सपैडिंग स्पेस के पीछे दो आकाशगंगाओं के दो समूहों के ग्रेविटि बबलों का बढ़ना है। इससे यह निश्चित होता है कि सारी की सारी आकाशगंगाओं के समूह और इससे बड़े क्लस्ट, फिलामैंट मिलकर एक बहुत विशाल ग्रेविटि बबल में बन्द हैं इसलिए ये एक दूसरे से जुड़े हैं।
एक हिलियम एटम से बना छोटा सा प्रथम ग्रेविटि बबल ही धीरे धीरे एक विराट ग्रेविटि बबल में रूपान्तरित हो जाता है। इस एक ही विराट ग्रेविटि बबल में असख्य ग्रेविटि बबल समाए हुए है। प्रत्येक बबल के केन्द्र पर एक स्पेस ओबजक्ट मौजूद होता है। इसलिए सभी आकाशगंगाए अपने अपने तारों, ग्रहों और उपग्रहों के ग्रेविटि बबलों के साथ एक विराट बबल के केन्द्र के चारों तरफ चक्कर लगा रही हैं। इस तरीके एक विराट बबल के अन्दर रह कर सारे स्पेस ओबजक्ट अपने अपने ग्रेविटि बबलों द्वारा एक दूसरे से जुड़े हैं।
वैज्ञानिकों द्वारा बनाई गई ब्रह्माण्ड की तस्वीर तभी वास्तविक हो सकती है जब सारा ब्रह्माण्ड एक विशाल ग्रेविटि बबल में बन्द हो और इसमें स्थित प्रत्येक स्पेस ओबजक्ट अपने अपने ग्रेविटि बबलों के केन्द्र पर ही जन्म लेते हों। इसी केन्द्र पर बड़े होते हैं। इसी केन्द्र पर रहते हुए अन्त में ब्लेक होल में बदल जाते हैं। इसमे कहीं न कहीं कोई नया स्पेस ओबजक्ट बन रहा है। इससे प्रधान ग्रेविटि बबल बढ़ता जाता है। इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक स्पेस ओबजक्ट अपने ग्रेविटि बबल के केन्द्र में ही रहता है। कोई भी स्पेस ओबजक्ट अपने ग्रेविटि बबल के केन्द्र से नहीं हट सकता है। क्योंकि इस केन्द्र से दूर होते ही उसकी ग्रेविटि समाप्त हो जाएगी। ग्रेविटि समाप्त होते ही थर्मल आउटवर्ड प्रेशर से असंख्य टुकडे टकडे होकर अन्तरिक्ष बिखर जाएगा और ये टुकड़े अब अपनी रेडियो एक्टिव एनर्जी से स्टेबल ग्रेविटि बबल बनाकर नगण्य ग्रेविटि अर्जित करेंगे और अन्तरिक्ष में अपनी गति और दिशा के अनुसार घूमते रहेंगे। जैसे ही ये किसी बढ़ते ग्रेविटि बबल में प्रवेश करेंगे तो उस पर गिर कर मर्ज हो जाएंगे। ऐसे ही हमारी एस्टेराइड बैल्ट और ओरट क्लाउड जैसी रिंग समान संरचनाएं बनी है।
हमारे प्रधान मंत्री मोदी जी ने विकसित भारत 2047 लांच करते हुए हर शिक्षण संस्थान, विश्वविद्यालय और प्रत्येक भारतीय नागरिक से आव्हान किया है कि बिना एक पल खोए तय करो कि हम विकसित भारत संकल्प के लिए क्या कर सकते हैं ? फिर अपने सामर्थ्य के अनुरूप युवा शक्ति को इसमें चैनलाइज करने में जुट जाओ।
मेरा मत है कि हम दुनिया में पूर्व में हो चुके वैज्ञानिक प्रयोगों, अनुसंधानों, और खोजों को कुछ संशोधनों के साथ दौहराते है, पश्चिमि देशों के तकनिकि ज्ञान और खोजों को फिर से खोज कर उसे स्वदेशी अनुसंधान कहते हैं। यदि हम इसके स्थान पर मौलिक अनुसंधान और शौध करें तो भारत को विज्ञान महाशक्ति बनने से काई नहीं रोक सकता है। मौलिक अनुसंधान और शौध का अर्थ है कि ब्रह्माण्ड और इसके नियमों को अब तक अर्जित आधुनिक तकनिकि ज्ञान और अर्जित वैज्ञानिक समझ का स्वतंत्र उपयोग करते हुए फिर से जानने का प्रयास किया जाए। आधुनिक विज्ञान द्वारा विकसित नियमों और सिद्धान्तों का नए सिरे से नए प्रमाणों के सहारे प्रमाणीकरण करे।
एसे ही एक प्रयास में असामान्य विश्व परिकल्पना में अन्तरिक्ष, पदार्थ, नेचुरल फोर्सेज और अन्तरिक्षीय पिण्डों का निर्माण और पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति को नए तरीके से समझा गया। इस नई समझ ने एक नए ब्रह्माण्ड की तस्वीर विकसित की। इसे विज्ञान सम्मत प्रमाणों से साबित करने के लिए मैं निन्म प्रयोग आपके निरिक्षण, परीक्षण और रिकमन्डेशन के लिए प्रस्तावित करता हूं। इस प्रयोग की वैज्ञानिक सम्भाव्यता का आकलन करने में रा॰वि॰वि॰ के फिजिक्स डिपार्टमैन्ट जैसे संस्थान बड़ा सहयोग करेंगे। असामान्य विश्व ग्रेविटि प्रयोगों द्वारा प्रमाणित होते ही विज्ञान की एक नई लहर पैदा करेगी जो एक नई विन्डो खोलगी। यह विण्डो युवा वैज्ञानिकों की अपार एनर्जी को चैनलाइज करेगी। युवा वैज्ञानिकों के अपार तकनिकि ज्ञान की सहायता से मोदी इफक्ट सारे आधुनिक भौतिकि विज्ञान में सकारात्मक मौलिक बदलाव लाएगी। आदरणीय भौतिकि प्रोफेसरों और छात्रों से निवेदन है कि ग्रेविटि की नई अवधारणा को प्रयोगों से साबित करके भारत को विज्ञान महाशक्ति बनाकर विकसित भारत 2047 सकल्प में अपना योगदान सुनिश्चित करें।
प्रस्तावित प्रयोगः- असामान्य विश्व परिकल्पना द्वारा प्रस्तावित प्रयोग के अनुसार मंगल ग्रह की सतह से लगभग 50 हजार किलोमीटर ऊपर अन्तरिक्ष में चार हाइड्रोजन न्युक्लिआई को फ्यूज करवाया जाए। इससे एक हिलियम एटम बनेगा और एनर्जी मुक्त होगी। इस एनर्जी से हिलियम एटम के चारों तरफ स्पेस आउटवर्ड कर्व होगा। इससे हिलियम एटम के चारों तरफ एक खाली बबल बनकर ग्रेविटि बबल बनेगा और इसके केन्द्र पर एक स्पेस ओबजक्ट बनना शुरु हो जाएगा। एैसा होते ही हमारे इनस्ट्रुमैंट इसे पकड़ लेंगे और विज्ञान जान जाएगा कि ग्रेविटि कैसे बनती है और कैसे काम करती है। इस नई समझ के द्वारा नया वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड विज्ञान के सामने उपस्थित होगा जो मानवता को नई ऊंचाइयां प्रदान करने में सक्षम होगा और हमारे युवा वैज्ञानिक इस प्रयोग से ऊर्जित होकर असंख्य वैदिक विज्ञान की प्रधान अवधारणाओं को प्रयोगों से साबित करके दुनिया के सामने लाकर भारत को विश्वगुरु बनाने के मोदी जी सपने को पूरा करेंगे। मोदी इफक्ट जनित विज्ञान भावना से ओतप्रोत युवा वैज्ञानिकों का समूह सक्रिय होकर भारत को 2047 तक एक विज्ञान शक्ति बनाकर उसे विकसित भारत बना देगा। युवा भारतीय वैज्ञानिक विकसित भारत 2047 सकंल्प को पूरा करने में सबसे बड़ा योगदान देने जा रहे हैं।
एबीएस कालेज जयपुर से स्नातक करके मैंने अपनी अन्तिम पढ़ाई विवि के लॉ डिपार्टमैंट से की जो कि लॉ स्नातक के दो साल पढ़कर ही छोड़़नी पड़ी। मैरा अन्तिम शिक्षण संस्थान राविवि का कैम्पस में स्थित लॉ बिल्डिंग है।
फिजिक्स के 5 प्रोफेसर जिन्होंने 2000 में शुरु हुई असामान्य विश्व परिकल्पना को अनेक मोड़ देते हुए 2023 में 17 वे संस्करण तक इसे वैज्ञानिक बनाकर प्रयोगों से साबित होने योग्य परिकल्पना में बदला।
1॰स्व॰प्रो॰आर॰के॰जोशी फिजिक्स राविवि ‘‘जीरो बाबा‘‘ः- जीरो बाबा एक सन्यांसी की तरह का जीवन जी रहे थे। शुरुआती असामान्य विश्व परिकल्पना को तार्किक वैज्ञानिक मोड़ देकर आठवां संस्करण-2006 प्रकाशित करवाया। इस संस्करण में यह परिकल्पना पूरी दुबारा बनी। समान अवधारणाएं असामान्य विश्व के 16वे संस्करण‘2016 तक छोटे बदलावों के साथ रिपीट होती रहीं।
2॰ स्व॰प्रो॰के॰बी॰ गर्ग एचओडी फिजिक्स राविविः- प्रो॰गर्ग ने असामान्य विश्व परिकल्पना की अवैज्ञानिकता से परिचय करवाया। मेरी मानसिक क्षमता को पहचान कर मुझे उपलब्ध रिलेटेड वैज्ञानिक सिद्धान्तों के बेसिक्स के अध्ययन करने की सलाह दी। फिर इस परिकल्पना के समर्थन में एैसे प्रमाण जुटाने के लिए कहा जिन्हें प्रयोगों से साबित किया जा सके। इससे परिकल्पना वैज्ञानिक होने लगी।
3॰ प्रो॰सुधीर रानीवाला, फिजिक्स राविविः-प्रो॰सुधीर रानीवाला को 16वें संस्करण-2016 की एक प्रति फरवरी 2016 में भेंट की। तब रानीवाला ने पुस्तक का एक पन्ना पलट कर कहा कि ‘‘यह साइंस नहीं है, एक किताब फिजिक्स की पढ़ और समझ कर ही मेरे कमरे में दुबारा प्रवेश करना‘‘।
इस रानीवाला प्रसंग ने अद्भुत तरीके से लेखक को प्रेरित कर फिजिक्स के साथ विज्ञान विषयों की गहन आनलाइन पढ़ाई करने के लिए मजबूर कर दिया।
4॰ अलख पाण्डे फिजिक्स वालाः- अलख पाण्डे ने भौतिकि विज्ञान के बेसिक्स को बहुत सरल समझ में बदल कर फील करवाते हुए आन लाइन निशुल्क पढ़ाया। इससे मेरे जैसा 63 साल का लेखाकार के पद से रिटायार्ड कला स्नातक छात्र भी आसानी से भौतिकि के बेसिक्स को समझ सका। फिर इस भौतिकि से जन्मी वैज्ञानिक समझ का उपयोग एक नई विज्ञान परिकल्पना को प्रस्तुत करने में कर सका। इसके प्रमाणीकरण के लिए शौध और प्रयोग परियोजना प्रस्तुत कर सका। विकसित भारत 2047 संकल्प में अपना योगदान तरीका समझ सका। मोदी इफक्ट से जन्में आईडिया को एक वज्ञानिक तरीके से समझ कर उसे साबित करने के लिए प्रयोग परियोजना प्रस्तुत कर सका। अलख पाण्डे सर से पढ़े मेरे समान अन्य युवा छात्र भी अपने ज्ञान से विकसित भारत-2047 में अपना योगदान देंगे।
5॰ प्रो॰नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री भारतः- मोदी इफक्ट ने एक फिजिक्स के प्रोफेसर समान ही असामान्य विश्व परिकल्पना को अन्तिम मोड़ दिया। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने लाल किले से 15 अगस्त 2022 को वैदिक सूत्र ‘‘यत् पिण्डे तत् बह्माण्डे‘‘ को महान भारतीय विरासत बताते हुए इस पर हर भारतीय को गर्व करने की सीख दी। ब्रह्माण्ड और जीवों में एक वैज्ञानिक समानता दिखाने का प्रयास करते हुए कहा कि जो बह्माण्ड में है वो हर जीव मात्र में है। इस समानता का विश्लेषण करते करते भाजपा कार्यकर्ता तथा स्वंयसेवक सुरेश कुमार को एक बड़ा आइडिया मिला कि प्राणी और तारे दोनों ही एक समान प्रकार की क्रियाविधि से बनते हैं! जैसे दो अनस्टेबल हैप्लाइड कोशिकओं या गेमेट के फ्यूजन से एक स्टेबल फर्टाइल सेल या उर्वर कोशिका बनती है जो गर्भ में पूरे शरीर में बदल जाती है। इस प्रमाणिक जीव वैज्ञानिक क्रियाविधि को तारों के निर्माण की प्रक्रिया में देखने और खोजने का प्रयास किया तो यह आइडिया विकसित हुआ कि ‘‘स्वतंत्र अन्तरिक्ष में दो अनस्टेबल हिलियम एटमों के फ्यूजन से एक स्टेबल हिलियम एटम बनता है। इस एक आइडिए ने अवैज्ञानिक परिकल्पना को एक ठोस वैज्ञानिक परिकल्पना में बदल दिया।
विकसित भारत-2047 संकल्प को पूरा करने के लिए श्री मोदी जी ने प्रत्येक भारतीय युवा नागरिक से बिना थके अपना योगदान देने के लिए कहा है। चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो। विशेषतया शिक्षकों और शिक्षण संस्थानों सेे युवाओं की असीम उर्जा को इस दिशा में फोकस करने के महान कार्य को तुरन्त शुरु करने को कहा है। मोदी इफक्ट ने भारत को विज्ञान महाशक्ति बनकर विश्वगुरु बनने की राह बना दी है। इस राह पर चल कर भारतीय युवा विज्ञान के उपयोग द्वारा विकसित भारत-2047 संकल्प साकार करेंगे। इसके के लिए मोदी इफक्ट से जन्मी विज्ञान की केवल एक लहर पयाप्त है। एसी विज्ञान लहर केवल असामान्य विश्व परिकल्पना जैसी मौलिक और पूरी तरह नई शौध और प्रयोग परियोजना पर कार्य करने से ही जन्म लेती है और तेजी से फैलती है। यह कार्य किसी फिजिक्स के प्रोफेसर से कमतर नहीं है। इसलिए प्रधानमंत्री श्री मोदी जी को राविवि द्वारा फिजिक्स के प्रोफेसर की मानद उपाधी प्रदान की जानी चाहिए।
एक कालडेरा वाल्केनिक क्रेटर लेक के पैंदे में ड्रिल करके उसके नीचे मैग्मा चैम्बर समान छोटी सी जगह बनाई जाए। इसमें मैग्मा पदार्थ रखकर उसका ताप बढ़ाने की कोई डिवाइस फिट कर दी जाए और फिर ड्रिल के रास्ते को बन्द कर दिया जाए। इस डिवाइस से इस स्थान का ताप इतना बढ़ाया जाए कि यह छोटा सा क्रत्रिम मैग्मा चैम्बर सक्रिय हो जाए और एक माइनर वालकेनिक एरप्शन हो और थोड़ा सा मैग्मा झील के पैंदे को तोड़ कर ऊपर जा आए। इस क्रत्रिम वालकेनिक माइनर एरप्शन से इस लेक के पैंदे में एक बड़ा बुलबुला बनेगा। इस बुलबुले में ज्वालामुखी जनित वाटर वेपर, मीथेन, नाइट्रोजन और कार्बनडाई आक्साइड जैसी गैसें, कम्पाउंड और बायोएलिमैंट थे। इस बुलबुले के अन्दर का ताप लगभग एक हजार डिग्री सैन्टीग्रेड से ज्यादा होगा। बड़े आकार में होने के कारण यह बुलबुला 5 किलोमीटर गहरी झील के पैंदे से बहुत धीरे धीरे ऊपर आएगा। इसे झील की सतह तक आने में दो चार दिन का समय लग जाएगा। इस दौरान इसमें स्पार्क चैम्बर प्रयोग के समान रासायनिक, थर्मल और इलेक्ट्रामैग्नेटिक कंडिशन मौजूद रहेंगी। इनसे प्रेरित रासायनिक क्रियाओं से इस बबल में बड़ी संख्या में सभी प्रकार के बायोमॉलीक्यूल बनेंगे।
फिर हिमयुगीन ताप के अनुसार ही इस झील के पानी की सतह को क्रत्रिम रूप से माइनस 200 डिग्री सै॰ तक ठण्डा करके फ्रिज करना शुरु कर दिया जाए। जब तक यह गरम बुलबुला पानी की सतह पर आता, इससे पहले ही जलसतह बर्फ बन चुकी थी। इससे बुलबुला जल सतह से थोड़ा नीचे ही चारों तरफ से बर्फ से पैक हो जाएगा। तापमान कम होने से बायोमॉलीक्यूल एक साथ आकर गुच्छा बनाकर बुलबुले में ही फ्रिज होकर निष्क्रिय हो जाएंगे। इस बुलबुले के बाहर बायोमॉलीक्यूल आक्सिजन के प्रभाव से नष्ट हो जाएंगे।
वैज्ञानिकों द्वारा इस पूरे प्रयोग को ओबजर्व करने से यह साबित हो जाएगा कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के लिए एक कालडेरा वालकेनिक झील में प्रथम हिमयुग की शुरुआत में लगभग 250 करोड़ साल पहले प्राकृतिक तरीकों से प्रेरित रासायनिक क्रियाओं द्वारा बायामॉलीक्यूलों का संश्लेषण हुआ था। ये बायोमॉलीक्यूल इसी बर्फीली झील में इसी बुलबुले में हिमयुगीन शीत से फ्रिज होकर 85 करोड़ साल पहले तक निष्क्रिय रहे। 85 करोड़ साल पहले हुए पृथ्वी के सर्वाधिक भीषण ज्वालामुखी विस्फोट से यह पूरी झील अपने पथरिले क्रेटर सहित एक हिमखण्ड में टूट कर अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित हुई। 1200 किलोमीटर पोलर लोअर अर्थ ओरबिट में स्थापित होकर हिमखण्ड के केन्द्र पर स्थित बायोमॉलीक्यूल जीवन के बीजों ‘‘जीन‘‘ में बदले। फिर पृथ्वी पर वापस आने पर इन जीनों से कोशिकीय डीएनए बनकर जीवन शुरु हुआ।
प्रयोग का महत्वः- इस प्रयोग से वैज्ञानिक पृथ्वी पर प्राकृतिक तरीकों से बायोमॉलीक्यूलों के रासायनिक संश्लेषण को प्रमाणित करेंगे। इस तरीके बने बायोमॉलीक्यूलों का चिकित्सा और पोषण में उपयोग हो सकता है। इस प्रयोग के साथ मानव इतिहास की सबसे बड़ी खोज ‘‘ जीवन की उत्पत्ति की खोज‘‘ पूरी हो जाएगी।
लोअर पोलर ओरबिट में एक बर्फिले गोले के द्रवित केन्द में बायोमॉलीक्युलों से जीनों का संश्लेषण करनाः-
असामान्य विष्व परिकल्पना के अनुसार 85 करोड़ साल पहले प्रथम हिमयुग के अन्त में एक काल्डेरा वालकेनो विस्फोट से एक फ्रोजन लेक टूट कर एक हिमखण्ड में बदलकर अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित हुई। यह हिमखण्ड पोलर लोअर ओरबिट में 1200 किलामीटर ऊपर स्थापित हुआ। हिमखण्ड ने जैसे ही अपनी ग्रेविटि अर्जित की हिमखण्ड का केन्द्र द्रवित हो गया। जबकि उसके ऊपर का हिमखण्ड बर्फिला ही बना रहा। पृथ्वी के दोनों मैग्नेटिक पोलों से निकलने वाली फास्ट चेंजिंग मैग्नेटिक फील्ड लाइनों से मैग्नेटिक फ्लक्स बना। मैग्नेटिक फ्लक्स इनडयुज्ड इलेक्ट्रोमैग्नेटिज्म से प्रेरित रासायनिक क्रियाओं से हिमखण्ड के द्रवित केन्द्र पर स्थित बायोमॉलीक्यूलों से जीनों का संष्लेषण हुआ। समुद्र में वापस आकर द्रवित होने पर इसके केन्द्र पर अन्तरिक्ष में संष्लेषित जीन पर्यावरणीय प्रतिक्रिया करने के लिए कोषिकीय डीएनए में बदले। यह कोषिकीय डीएनए एक कोषिका युगल में बदला। यह कोषिका युगल एक युवा प्राणी में विकसित होकर यौन प्रजनन से एक प्राणी प्रजाति की करता है।
इस परिकल्पना को साबित करने के लिए माइनस 270 डिग्री सै॰ तापमान पर एक प्रयोगिक छोटा सा हिमखण्ड बनाकर उसके केन्द्र में झील में फ्रिज बायोमॉलीक्यूल रखकर उसे अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित करना है। फिर इस हिमखण्ड को पोलर लोअर अर्थ ओरबिट में स्थापित करना है। हिमखण्ड की अपनी ग्रेविटि और पृथ्वी के दोनों धु्रवों के मैग्नेटिक फ्लक्स से प्रेरित इलेक्ट्रोमैग्नेटिक इनडक्षन से बनी एनर्जी से हिमखण्ड का केन्द्र द्रवित हो जाएगा। इससे इसके केन्द्र में मौजूद बायोमॉलीक्युल एक्टिव होकर रासायनिक क्रियाएं करेंगे और जीवन के बीजों ‘‘जीन‘‘ में बदल जाएंगे। कुछ समय बाद इसे वापस लाकर समुद्र में द्रवित करने पर इसके केन्द्र में बायोमॉलीक्यूलों से बने जीन कोषिकीय डीएनए में बदल जाएंगे। इससे जीनों की अन्तरिक्षीय उत्पत्ति साबित होने के साथ वैदिक विज्ञान भी साबित होगा।
महत्वः- इस प्रयोग के सफल होने से वैज्ञानिक अन्तरिक्ष में ऐसे जीन और प्रोटीन बना सकेंगे जो मानव स्वाथ्य और चिकित्सा को क्रान्तिकारी आयाम प्रदान करते हुए सारे प्राणी जगत को लाभान्वित करने में सक्षम होंगे। इसी के साथ वैज्ञानिक जीनों से नई नई प्राणी प्रजातियां भी विकसित कर सकेंगे। इससे जेनेटिक इंजिनियरिंग में क्रान्तिकारी बदलाव आएगा
अन्तरिक्ष में चार हाइड्रोजन एटम के फ्यूजन से एक हिलियम एटम बनाकर एक स्पेस ओबजक्ट बनाना
असामान्य विश्व परिकल्पना के अनुसार अन्तरिक्षीय पिण्ड बनने की प्रक्रिया भी एक प्राणी शरीर बनने के समान ही होती है। एक प्राणी का जन्म दो हैप्लाइड कोशिका या गेमेट के मिलने से बनी एक उर्वर कोशिका या जाइगोट के विकास से होता है। इसी प्रकार एक अन्तरिक्षीय पिण्ड का जन्म दो अनस्टेबल हिलियम एटमों के फ्यूज होने से बने एक हिलियम एटम से होता है। फिर इसके चारों तरफ एक स्पेस ओबजक्ट बनता है। इस परिकल्पना को साबित करने के लिए मुक्त अन्तरिक्ष में चार हाइड्रोजन एटमों को फ्यूज करवाना होगा। मुक्त अन्तरिक्ष में एक हिलियम एटम बनते ही इसके चारों तरफ एक ग्रेविटि बबल बनेगा, इसकी सरफेस से ग्रेविटि वेव बनकर ग्रेविटि बनेगी। इस ग्रेविटि बबल में आने वाले एटम बबल के केन्द्र की तरफ आकर इस एक हिलियम एटम के चारों तरफ जमा होकर फ्यूज होते रहेेंगे और हिलियम एटम बनते रहेंगे। इससे धीरे धीरे एक स्पेस ओबजक्ट बनेगा। इससे ‘‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे‘‘ जैसा वैदिक वैज्ञानिक सूत्र भी साबित होगा कि जैसे एक प्राणी शरीर बनता है वैसे ही एक स्पेस ओबजक्ट बनता है। प्राणी शरीर का विकास मां के पेट या अण्डे रूपी गर्भ में होता है वैसे ही स्पेस ओबजक्ट का विकास ग्रेविटि बबल रूपी गर्भ में होता है।
इस परिकल्पना को प्रयोगों से साबित करने के लिए वैज्ञानिकों को मंगल ग्रह के मुक्त अन्तरिक्ष में चार हाइड्रोजन एटमों का फ्यूज करवाकर दो अनस्टेबल हिलियम एटम बनाने होंगे। फिर दो अनस्टेबल हिलियम एटमों को फ्यूज करवाकर एक नोरमल स्टेबल हिलियम एटम बनाना पड़ेगा। मुक्त अन्तरिक्ष में हाइड्रोजन फ्यूजन से एक हिलियम एटम बनते ही 26.7 मेगा इलेक्ट्रोन वोल्ट एनर्जी मुक्त होगी। इस एनर्जी से हिलियम एटम के चारों तरफ का स्पेस बाहर की तरफ कर्व हो जाएगा और यह स्थान खाली हो जाएगा और एक स्पेस बबल बनेगा। इस खाली स्थान का भरने के लिए स्पेस बबल की सरफेस से ग्रेविटि वेव बनेगी जो इनवर्ड स्पीरली मूव करके इसके केन्द्र पर स्थित हिलियम एटम तक आएंगी और उसमें घूर्णन पैदा करते हुए उसे अन्दर की तरफ धकेलेंगी। इसलिए इस स्पेस बबल को ही असामान्य विश्व परिकल्पना में ग्रेविटि बबल कहा गया है। ग्रेविटि बबल में प्रवेश करने वाले एटम इस हिलियम के पास आकर इसके चारों तरफ एक्रत्रित होते जाएंगे और उनके फ्यूजन से ग्रेविटि बबल बड़ा होता जाएगा। बड़े ग्रेविटि बबल में अधिक एटम आएंगे और इनके फ्यूजन से मुक्त एनर्जी से फिर ग्रेविटि बबल बड़ा होता जाएगा। इस तरीके से एक स्पेस ओबजक्ट विकसित होता जाएगा और ग्रेविटि बबल के लगातार बड़ा होने से इसकी ग्रेविटि भी लगातार बढ़ती जाएगी। वैज्ञानिक इस सारी प्रक्रिया का अवलोकन करके एक स्पेस ओबजक्ट बनने और ग्रेविटि के सोर्स और ग्रेविटि बनने की वास्तविक प्रक्रिया को समझेंगे।
महत्वः- इन प्रयोगों से वैदिक वैज्ञानिक सूत्र ‘‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे‘‘ भी वैज्ञानिक तरीके से साबित होगा। इसके साथ ही स्पेस की बनावट के बारे में भी स्पष्ट सबूत मिलेंगे, इसके आधार पर वैज्ञानिक स्पेस की वास्तविक शक्तियों का दोहन कर सकेंगे और मानवता की उन्नति की नई राह बनेगी। इन प्रयोगों के होने से भारत अमृतकाल के अन्दर अन्दर विज्ञान महाशक्ति में बदल जाएगा।
इन प्रयोगों को क्रियान्वित करने के लिए इसरो पूरी तरह सक्षम है।
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